अपने को कहां पाते हो,
अधेरे या उजाले में ।
तकदीर कहाँ जाती है,
समुन्दर के किनारे में।।1।।
अपने को पता नही,
हम कहाँ जाते है ।
तकदीर कैसे बनती है,
ये हमे पता नही ।।2।।
जब हमें पता चलता है,
हम दुर निकल जाते है।
अपने तकदीर पर ,
रोते रह जाते है ।।३।।
कुश जी बहुत बहुत स्वागत है आपका सुन्दर रचना है बस लिखते जायें शुभकामनायें
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